Bihar : देश के दूसरे राज्यों में सुनाई देती थी यहां की बांसुरी की तान, मगर लॉकडाउन ने सुर को बदला सिसकियों में
December 7, 2020गोपालगंज के हथुआ बाजार के सरकारी चौक… ये जगह भारत के कई राज्यों के लिए सुरों की खान माना जाता है। यहां कई पीढ़ियों से करीब डेढ़ सौ से दो सौ परिवार बांसुरी का निर्माण करते है। यहां बनने वाली बांसुरी न सिर्फ बिहार में बल्कि देश के अलग-अलग राज्यों में अपनी पहचान बना चुकी है। कला की परख और अच्छी बिक्री के चलते इस इलाके में समृद्धि थी। लेकिन कोरोना वायरस ने इस रोजगार पर भी बड़ी चोट मारी है। हाल ये है कि गोपालगंज का बंद होने के कगार पर है।
बदहाल हुए करने वाले यहां बांसुरी के व्यवसाय से जुड़े लोगों की आर्थिक बदहाली अब साफ दिखने लगी है। हथुआ के सरकारी चौक , दक्षिण मोहल्ला और पुरानी बाजार में घर-घर में बांसुरी बनाने का काम चलता है। सैंकड़ो परिवार कई पीढ़ियों से इसी कारोबार से जुड़े हैं। लेकिन अब यहां की बांसुरी की डिमांड कम हो गई है। सरकारी चौक के घर-घर में आप जाकर खुद देख सकते हैं कि यहाँ बांसुरी बनाने में इस्तेमाल किया जाने वाला सारा समान रखा हुआ है। लेकिन कोरोना नाम की घातक महामारी ने इंसानी जीवन के साथ सुरों के कारोबार में भी जहर घोल दिया है।
लॉकडाउन की वजह से बाजार और मेले बंद होने से यहां बनने वाली बांसुरी की डिमांड कम हो गई है। इसकी वजह से बांसुरी का निर्माण ठप्प हो गया और सामान रखे-रखे सड़ गया।
सुरों के कारोबारी भूखमरी की हालत तक पहुंचेसरकारी चौक में बांसुरी के व्यवसाय से जुड़े युवा सैय्यद अली बचपन से ही बांसुरी का काम करते रहे हैं। लेकिन देश में कोरोना को लेकर जब लॉकडाउन लगा तो उनका रोजगार ही ठप हो गया। अब सैय्यद बेरोजगार हैं, सिर्फ सैय्यद ही नहीं बल्कि नूरजहां खातून , अबियम निशा सहित दर्जनों ऐसे कलाकार हैं जिनकी कला घर की देहरी में दम तोड़ती जा रही है।
इन लोगों का कहना है कि वो यहां से बांसुरी का बना कर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात सहित कई राज्यों में बेचते थे। यहां की बांसुरी की डिमांड गुजरात में ज्यादा थी। लेकिन ट्रेनों के परिचालन पर रोक लगने वे इन राज्यों में नहीं जा पा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ खरीददार भी यहां तक नहीं आ पा रहे।
सुरों के बदले गूंज रही सिसकियांअब बांसुरी बनाने वाले इन घरों में पैसे की किल्लत हो गई है। सूद पर पैसे भी लिए… घर में रखे गहने भी बिक गए, बावजूद इसके आर्थिक तंगी खत्म होने के बजाए और बढ़ती ही जा रही है। अबियम निशा और नूरजहां खातून की आंखों में आंसू हैं। वो अभी भी रोजाना डेढ़ सौ बांसुरी बना ले रही हैं। इन सबको उम्मीद है कि कभी तो कोरोना और लॉकडाउन से निजात मिलेगी। कभी तो बाजार खुलेगा और कभी तो इनकी सिसकियां फिर से सुर में बदलेंगी।
उम्मीद अभी बाकी है…हालांकि इनमें से कोई भी सरकार की बात नहीं कर रहा। लेकिन जरुरत है कि सरकार खुद भी पहल करे, क्योंकि ये कारोबार सिर्फ फायदे का नहीं बल्कि दिलों को सुरों से सुकून पहुंचाने का भी है। ये सुर अगर यूं ही सिसकियों की आवाज में गूंजते रहे तो न सिर्फ कई परिवारों का रोजी रोटी छिन जाएगी बल्कि एक कला भी विलुप्त हो सकती है। वो कला जो बिहार की है, उस राज्य की है जो सुकून पहुंचाने का कारोबार करता आ रहा है।