मध्यप्रदेश में नए नेता प्रतिपक्ष : घोड़े या सवार को नहीं ; दशा बदलना है, तो दिशा बदलनी होगी (आलेख : बादल सरोज)

मध्यप्रदेश में नए नेता प्रतिपक्ष : घोड़े या सवार को नहीं ; दशा बदलना है, तो दिशा बदलनी होगी (आलेख : बादल सरोज)

April 29, 2022 0 By Central News Service

अंततः कांग्रेस ने मध्यप्रदेश की विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बदल ही दिया। अब तक पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ही प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे, नेता प्रतिपक्ष भी थे। अब 7 बार के विधायक डॉ गोविन्द सिंह नेता प्रतिपक्ष होंगे। यह बदलाव अपेक्षित था, क्योंकि कमलनाथ न कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में कुछ करते दिखे, ना ही नेता प्रतिपक्ष के रूप में विधानसभा में कोई छाप छोड़ी। इसके पीछे, जैसा कि कहा जा रहा है, उनकी 71 वर्ष की आयु नहीं, उनका संभ्रम जिम्मेदार है। वे अभी भी खुद को मुख्यमंत्री ही माने बैठे हैं — हालांकि दिलचस्प बात यह है कि जब वे मुख्यमंत्री थे, तब भी उन्होंने कभी कोई ऐसा काम नहीं किया, जिससे उनका मुख्यमंत्री होना साबित होता।

बहरहाल, हम एक सभ्य और लोकतांत्रिक समाज में रहते हैं, जो सभी को अपने-अपने स्वर्गों में रहने का अहसास करने की आजादी देता है ; फिर कमलनाथ तो बहुत बड़े वाले वरिष्ठ हैं। उनकी स्वतन्त्रता तो असीम है। इतनी असीम कि जिस दिन खरगौन हो रहा होता है, उस दिन वे सुन्दरकाण्ड के पाठ में व्यस्त होते हैं। जिस रोज हनुमान जयन्ती की आड़ में बजरंग दली पूरे प्रदेश में बाबेला खड़ा किये होते हैं, वे हनुमान चालीसा का जाप करती रैलियों में पूरी कांग्रेस को जोते रखते हैं।

व्यक्ति के नाते अपनी अटूट अगाध धर्मनिष्ठा को पूरी पार्टी की कर्तव्यनिष्ठा बनाने के इस कमलनाथी आचरण से एक ऐतिहासिक संवाद याद आया : आजादी के बाद दिल्ली जल रही थी। मारकाट चल रही थी। दंगों के बीच दिलेरी से काम कर रही सुभद्रा जोशी जी गांधी जी के पास पहुँची और कहा “बापू बहुत खराब हालत है। हजारों लोग मारे जा चुके हैं। दंगा और खूनखराबा जारी है।” चरखा कातते-कातते नजरें झुकाये बापू ने पूछा : “दंगा रोकने के लिए कांग्रेस क्या कर रही है?” सुभद्रा जी बोलीं : “हमने राहत कैंप खोले हैं, खाना बाँट रहे हैं। डॉक्टर्स की टीम लगी है। कपडे भी इकट्ठा कर रहे हैं।” बापू ने चरखा बंद कर नजरें ऊपर की और सुभद्रा जी की आँखों में आँख डालकर पूछा : “दंगों को रोकते हुए कितने कांग्रेसी मारे गए अभी तक?” सुभद्रा जी चुप्प। बापू ने सवाल दोहराया। सुभद्रा जी ने जवाब दिया : “एक भी नहीं !!” गांधी ने कहा : “जाओ – कांग्रेसियों से कहो कि औरों को मरने से रोकना है, तो पहले खुद को जोखिम में डालना सीखें।”

इन दिनों गांधी होते तो संवाद कुछ इस तरह होता : गांधी — “कमलनाथ, खरगौन हो रहा है, पूरे प्रदेश में चुन चुन कर मकान तोड़े जाने की योजना बन रही है, तुम्हारी अध्यक्षता वाली कांग्रेस क्या कर रही है?” कमलनाथ : कांग्रेस दफ्तरों में सुन्दरकाण्ड करवा रही हैं, रामनवमी पर हनुमान चालीसा का पाठ करवा रही है!!”

खरगौन, सेंधवा, उज्जैन तो दूर की बात है। भुखमरी, भ्रष्टाचार, राशन की लूट, दलितों की बारातों पर दिनदहाड़े होते हमलों, लड़कियों तक के साथ दुष्कर्मों की घटनाओं, नौकरियों में एक के बाद दूसरे व्यापमं, खेती किसानी की बेकदरी से लेकर ठेठ भोपाल में बुलडोजर चलते समय भी न वे खुद जागते हैं, ना ही अपनी पार्टी को ही जगाने की रत्ती भर कोशिश ही करते हैं। उनसे सड़कों पर उतरने की अपेक्षा करना तो खैर बहुत ही ज्यादा दूर की बात है, विधानसभा में भी वे मुंह नहीं खोलते। मध्यप्रदेश की विधायिका की बैठकें सिकोड़ कर सीमित कर देने और जो बैठकें होती हैं, उनमे भी सत्ता पार्टी की धींगामुश्ती पर वे कुछ नहीं बोलते। यहां तक कि विधानसभा की इन गिनी-चुनी बैठकों मे भी वे हिस्सा नहीं लेते, उनके हिसाब से वे बकवास हैं।

लोकतंत्र में जनता की ज्यादा उम्मीद विपक्ष से होती हैं। एक मजबूत और सक्रिय, सड़कों पर जीवंत और सदन में चैतन्य विपक्ष ही लोकतंत्र के बेहतर स्वास्थ्य की गारंटी है। ठीक यही काम है, जिसे करने में मध्यप्रदेश में कांग्रेस कुछ ज्यादा ही विफल रही है। सबसे मजेदार बात यह है कि उसके ज्यादातर नेताओं को इस विफलता का भान तक नहीं है — खुद अपने मैदानी कार्यकर्ताओं की खीज, बेचैनी और झल्लाहट का अनुमान तक नहीं है। कोई भी राजनीतिक पार्टी कंपनी नहीं होती, किसी भी राजनीतिक पार्टी को कम्पनी के सीईओ के अंदाज में नहीं चलाया जाता। हालांकि कम्पनी भी लगातार देखरेख और वक़्त की जरूरतों के हिसाब से बदलाव की दरकार रखती है। पूँजीवाद भी अपनी कार्यक्षमता और कार्यकुशलता और तुरंतई अनुकूलन की विशेषता के लिए जाना जाता है। मगर इसके लिए मन के लड्डू खाने के भाव और छींका टूटने के बिल्ली अंधविश्वास से उबरना होता है।

मध्यप्रदेश – और देश में भी – यह जो सब कुछ हो रहा है, उसके पीछे के तयशुदा कारण वे नीतियां हैं, जिन्हे पूरी निर्ममता के साथ भारत का सत्ता वर्ग लागू कर रहा है। मगर नीतियों वाला प्रश्न तो कांग्रेस के लिए जैसे आउट ऑफ कोर्स सवाल है। एक तो इसलिए कि आज जो बुलडोजर बनकर देश के आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक धरातल को रौंद रही हैं, उनकी ट्रैक्टर-ट्रॉली कांग्रेस के जमाने में ही शुरू हुयी थी। आज तक कांग्रेस ने उससे पल्ला नहीं झाड़ा है। खुद कमलनाथ ने अपने 17 महीने के राज में इसी विनाश रथ पर सवारी की थी। कारपोरेट की लूट को लूट नहीं कहकर लुटी-पिटी जनता को राहत पहुंचाने की बात गुड़ खाने और गुलगुलों से परहेज करने का पाखंड है। दूसरी बात यहां सिर्फ कारपोरेट नहीं है, उसके साथ हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकता का पारस्परिक पूरक गहरा गठबंधन है। मगर हिन्दुत्व का नाम तक लेने को ना कमलनाथ तैयार हैं, ना ही उनकी कांग्रेस में हिम्मत हैं। आधे-अधूरे मन से सिर्फ गाल बजाये जा सकते हैं, राजनीति नहीं होती।

यह सब किये बिना क्या घोड़े या उसके सवार बदलने से इस 137 साल पुरानी पार्टी के हालात सुधर जाएंगे? नहीं। जब तक दिशा और दशा में बड़ा बदलाव नहीं होता, तब तक प्रतीकात्मक उपायों से कुछ नहीं बदलने वाला।